कहानी संग्रह >> छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएँ छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएँचंद्रावती नागेश्वर
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प्रस्तुत है पुस्तक छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएँ ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
लोकानुभूति की अभिव्यक्ति का माध्यम होता है लोक साहित्य। लोक साहित्य
आदिम युग से चले मानव की आदिम परंपराओं और उनके अवशेषों को अपने में
संजोये होता है। लोक साहित्य में पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, विज्ञान,
भाषाविज्ञान, इतिहास, मानवसमाज आदि सभी कुछ समाहित होते हैं।
लोककथाओं का स्रोत पुरातन परंपराएँ हैं। डॉ. बाबुलकर ने लोककथाओं की प्राचीनता वैदिक साहित्य में देखी है। पुराणों में प्राप्त लोककथाओं के रूपों से कहीं अधिक महत्त्व वृहत्कथा नामक ग्रंथ को दिया गया है। निःसंदेह पंचतंत्र और हितोपदेश की कथाएँ भी इसी श्रेणी में आती हैं। वैताल वंचविशंतिका में कथा सरित्सागर, पंचतंत्र तथा वृहत्कथामंजरी में प्राप्त 23 कहानियाँ संग्रहीत हैं, जो प्रहेलिका पद्धति की कहानियाँ हैं। ये कथाएँ एक ओर मनोरंजन करती हैं तो दूसरी ओर उत्सुकता उत्पन्न करती है। आगे चलकर सिंहासन द्वित्रिंश का महत्त्वपूर्ण है। संग्रह की 23 कहानियाँ अनूठी कल्पना के आधार पर रची गई हैं। जातक कथाएँ भी लोक साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
लोकथाओं एवं शिष्ट कथाओं में अंतर है। उधर हिन्दी की किसी भी जनपद की कहानियाँ सदियों पुरानी हैं। डॉ. बाबुलकर ने लोककथाओं को अनेक भागों में विभक्त किया है। यथा—देवगाथाएँ, व्रत कथाएँ, उपदेशात्मक, मनोरंजनात्मक, परियों की कथाएँ, पशु पक्षियों की कथाएँ भूतों की कथाएँ, समाधान मूलक एवं समस्या प्रधान कथाएँ एवं अन्य कथाएँ। प्रस्तुत कृति ‘छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएँ’ अन्य कथाओं के अंतर्गत समाहित की जा सकती है।’
छत्तीसगढ़ निःसंदेह धान का कटोरा है और भविष्य में भी रहेगा। भले ही धान के उपज की मात्रा स्वल्प होती जाए। छत्तीसगढ़ विद्वान साहित्यकारों की जननी रही है और भविष्य में भी रहेगी। छत्तीसगढ़ ने महाप्रभु वल्लभाचार्य जैसे संत तथा विचारों को जन्म दिया है। इनका जन्म रायपुर जिले के राजिम के समीप चम्पारन नामक स्थान में हुआ था। भले ही स्वामी वल्लभाचार्य का प्रभाव उत्तरभारत, गुजरात मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में अधिक रहा पर छत्तीसगढ़ को इस बात का गर्व है कि उसने वल्लभाचार्य जैसे पुष्टिमार्ग के संस्थापक को जन्म दिया है।
संत धरमदास कबीरदास के पट्ट शिष्य थे। उनके वंश की एक गद्दी कवर्धा में है। पहले कवर्धा का नाम कबीर धाम था, जो बोलते-बिगड़ते कवर्धा हो गया। 18वीं शताब्दी में छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय का प्रसार हुआ जिसके प्रवर्तक जगजीवन दास बाराबंकी जिले के चंदेल क्षत्रिय थे। इसी संप्रदाय की एक शाखा जिसके प्रवर्तक दुर्ग जिले के गिरौदपुरी निवासी संत गुरु बाबा घासीदास थे। रतनपुर के गोपाल कवि हिन्दी काव्य परम्परा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के वाल्मिकी कहे जाते हैं। उनके पुत्र का नाम माखन था। पिता पुत्र ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। रतनपुर के रेवाराम बाबू का भी विशेष महत्त्व है। रेवाराम जी ने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।
ठाकुर जगमोहन सिंह का श्यामास्वप्न नामक उपन्यास हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग की महत्त्वपूर्ण कृति है। शिवरीनारायण उनकी कर्मस्थली थी। बिलासपुर के जगन्नाथ प्रसाद भानु काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। छन्दशास्त्र पर लिखी उनकी कृतियां पूरे भारत में सम्मान प्राप्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। राजनांदगांव के डाक्टर बलदेव प्रसाद मिश्र तथा रायगढ़ के पंडित मुकुटधर पांडेय, लोचन प्रसाद पांडेय देश प्रसिद्ध हैं। डॉ. शंकर शेष और श्रीकांत वर्मा बिलासपुर की ही देन हैं। आज भी छत्तीसगढ़ के स्वनाम धन्य कवियों एवं साहित्यकारों का हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। किन्तु ऐसे भी कवि और साहित्यकार हैं जो मूल्यांकन की दृष्टि से आज भी उपेक्षित हैं।
हिन्दी की प्रायः सभी विधाओं में छत्तीसगढ़ के साहित्याकरों का योगदान रहा है। लेखन के प्रति मेरी अभिरुचि विद्यार्थी जीवन से ही रही है। प्रदेश स्तरीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मेरी छुटपुट रचनाएँ खूब छपती रही हैं, जिनमें स्वास्थ्य संबंधी, आलेख, सामाजिक लेख, भारतीय परंपराओं की वैज्ञानिकता को दर्शाते आलेख, नीति कथाएँ, सूक्तियाँ, कहावतों पर आधारित लेख, समसामयिक विषयों पर आलेख नारी के संघर्ष को उद्धृत करती कहानियाँ आदि विशेष हैं। इसी क्रम में जीवन के पचासवें वर्ष (स्वर्ण जयंती) ने मुझे पी—एच-डी. की उपाधि का उपहार दिया। अब ये छुटपुट लेख, कथाएँ, छोटी-मोटी कृतियों का रूप धारण करने पर अड़े हुए हैं। ‘छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएं’ इसी यात्रा का पड़ाव हैं। प्रस्तुत कृति में मैंने छत्तीसढ़ के अनेक लोकाचारों को लघुकहानियों का रूप प्रदान किया है। परंपराओं को बदलते स्वरूप के अनुरूप बनाकर आधुनिकता से जोड़कर कुछ कहानियों का सृजन किया है। कहानियों में जिज्ञासा और रोचकता का विशेष महत्त्व होता है मैंने पूरा प्रयास किया है कि उत्सुकता बनी रहे साथ ही क्षेत्रीयता को भी स्थान दिया है। कुछ कहानियों में यथार्थ को ही विशेष महत्त्व दिया है। यथार्थ के साथ आदर्श की भी गूंज हर कथा में सुनाई पड़ती है। कुछ घटनाएँ मेरे सामने और मेरे आसपास इस तरह घटी कि मैं उनकी मूक साक्षी रही हूँ। कुछ कहानियों में परंपरा के साथ आधुनिकता का मणिकांचन संयोग है। कुछ कहानियाँ परंपरा से हटकर, कटकर आधुनिकता का आंचल थामे हैं।
एक सुप्रसिद्ध कहावत है कि ‘कोस कोस में बदले पानी, चार कोस में बानी’ यदि इसमें मैं यह जोड़ दूँ कि घाट-घाट में बदले विचार बाट-बाट में व्यौहार तो अतिश्योक्ति न होगी। आचार-विचार और व्यवहार में भी थोड़ी-थोड़ी दूसरी में अंतर आ जाता है। मेरी कहानियाँ मुख्यतः लोकाचार पर आधारित हैं। इन कहानियों का यथार्थ मूल्यांकन पाठकगण ही कर सकेंगे। इन कहानियों के लेखन का मुख्य उद्देश्य नवोदित छत्तीसगढ़ राज्य की लोक-परंपराओं का अन्य प्रांतों के निवासियों को जानकारी देना, साथ ही सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्वशिक्षा अभियान एवं नवसाक्षरों के लिए रोचक साहित्य निर्माण में सहयोग देना है।
इन कहानियों में परंपराओं के साथ आधुनिकता तथा यथार्थ के साथ कल्पना को समन्वित कर इन्हें रोचक एवं समाजोपयोगी बनाने का पूरा प्रयास मैंने किया है। वस्तुतः समाज के अंग विभिन्न जाति-समुदायों के घर-घाट, हाट-बाट घटित घटनाएँ ही कथा का रूप ले बैठी हैं। प्रस्तुत कृति के प्रणयन में मैंने कोरबा एवं विलासपुर के विभिन्न पुस्तकालयों में उपलब्ध लोकसाहित्य संबंधी विभिन्न कृतियों का अध्ययन, मनन किया। अनेक कथारात्रों के जीवन की प्रत्यक्षदर्शी रही हूँ तथा अनेक लोकाचारों की जानकारी प्राप्त करने छत्तीसगढ़ के अनेक गाँवों का भ्रमण किया। इस कार्य में सर्वाधिक सहायता मुझे मेरे पति श्री एस.डी. नागेश्वर से मिली जो भ्रमणकाल में मेरे साथ रह कर मेरा उत्साहवर्धन करते रहे साथ ही विशिष्ट संदर्भ ग्रंथों को उपलब्ध कराने में सहायक रहे।
मैं उन्हें हृदय से धन्यवाद देती हूँ। साथ ही अपने दोनों सुपुत्रों डॉ. प्रशांत नागेश्वर एवं चिं. निसांत नागेश्वर को भी साधुवाद देती हूँ कि उनके बढ़ावा देने से मेरी चिरसंचित पुस्तक प्रकाशन की चाह को मंजिल मिली।
मेरे शोध प्रबंध को यथार्थ देने में सी.एम.डी. महाविद्यालय, बिलासपुर के पूर्व प्राचार्य एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी तथा रविशंकर विश्वविद्यालय बिलासपुर छ-ग. के हिन्दी अध्ययन मंडल के पूर्व अध्ययक्ष डॉ. जगमोहन मित्र ने मेरी अपूर्व सहायता की है। इस कृति में भी वे मेरे मार्गदर्शक रहे हैं। मात्र आभार मानकर मुक्त होना औपचारिकता का परिपालन ही होगा। मैं आजीवन उनकी ऋणी रहूँगी। मैं आभारी हूँ चिरंजीव आशीष श्रीवास की (चाम्पा पिसौद) जिन्होंने मेरी कहानियों का चित्ररूप में जीवनंत करके अपना अमूल्य सहयोग दिया है।
लोककथाओं का स्रोत पुरातन परंपराएँ हैं। डॉ. बाबुलकर ने लोककथाओं की प्राचीनता वैदिक साहित्य में देखी है। पुराणों में प्राप्त लोककथाओं के रूपों से कहीं अधिक महत्त्व वृहत्कथा नामक ग्रंथ को दिया गया है। निःसंदेह पंचतंत्र और हितोपदेश की कथाएँ भी इसी श्रेणी में आती हैं। वैताल वंचविशंतिका में कथा सरित्सागर, पंचतंत्र तथा वृहत्कथामंजरी में प्राप्त 23 कहानियाँ संग्रहीत हैं, जो प्रहेलिका पद्धति की कहानियाँ हैं। ये कथाएँ एक ओर मनोरंजन करती हैं तो दूसरी ओर उत्सुकता उत्पन्न करती है। आगे चलकर सिंहासन द्वित्रिंश का महत्त्वपूर्ण है। संग्रह की 23 कहानियाँ अनूठी कल्पना के आधार पर रची गई हैं। जातक कथाएँ भी लोक साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
लोकथाओं एवं शिष्ट कथाओं में अंतर है। उधर हिन्दी की किसी भी जनपद की कहानियाँ सदियों पुरानी हैं। डॉ. बाबुलकर ने लोककथाओं को अनेक भागों में विभक्त किया है। यथा—देवगाथाएँ, व्रत कथाएँ, उपदेशात्मक, मनोरंजनात्मक, परियों की कथाएँ, पशु पक्षियों की कथाएँ भूतों की कथाएँ, समाधान मूलक एवं समस्या प्रधान कथाएँ एवं अन्य कथाएँ। प्रस्तुत कृति ‘छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएँ’ अन्य कथाओं के अंतर्गत समाहित की जा सकती है।’
छत्तीसगढ़ निःसंदेह धान का कटोरा है और भविष्य में भी रहेगा। भले ही धान के उपज की मात्रा स्वल्प होती जाए। छत्तीसगढ़ विद्वान साहित्यकारों की जननी रही है और भविष्य में भी रहेगी। छत्तीसगढ़ ने महाप्रभु वल्लभाचार्य जैसे संत तथा विचारों को जन्म दिया है। इनका जन्म रायपुर जिले के राजिम के समीप चम्पारन नामक स्थान में हुआ था। भले ही स्वामी वल्लभाचार्य का प्रभाव उत्तरभारत, गुजरात मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में अधिक रहा पर छत्तीसगढ़ को इस बात का गर्व है कि उसने वल्लभाचार्य जैसे पुष्टिमार्ग के संस्थापक को जन्म दिया है।
संत धरमदास कबीरदास के पट्ट शिष्य थे। उनके वंश की एक गद्दी कवर्धा में है। पहले कवर्धा का नाम कबीर धाम था, जो बोलते-बिगड़ते कवर्धा हो गया। 18वीं शताब्दी में छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय का प्रसार हुआ जिसके प्रवर्तक जगजीवन दास बाराबंकी जिले के चंदेल क्षत्रिय थे। इसी संप्रदाय की एक शाखा जिसके प्रवर्तक दुर्ग जिले के गिरौदपुरी निवासी संत गुरु बाबा घासीदास थे। रतनपुर के गोपाल कवि हिन्दी काव्य परम्परा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के वाल्मिकी कहे जाते हैं। उनके पुत्र का नाम माखन था। पिता पुत्र ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। रतनपुर के रेवाराम बाबू का भी विशेष महत्त्व है। रेवाराम जी ने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।
ठाकुर जगमोहन सिंह का श्यामास्वप्न नामक उपन्यास हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग की महत्त्वपूर्ण कृति है। शिवरीनारायण उनकी कर्मस्थली थी। बिलासपुर के जगन्नाथ प्रसाद भानु काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। छन्दशास्त्र पर लिखी उनकी कृतियां पूरे भारत में सम्मान प्राप्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। राजनांदगांव के डाक्टर बलदेव प्रसाद मिश्र तथा रायगढ़ के पंडित मुकुटधर पांडेय, लोचन प्रसाद पांडेय देश प्रसिद्ध हैं। डॉ. शंकर शेष और श्रीकांत वर्मा बिलासपुर की ही देन हैं। आज भी छत्तीसगढ़ के स्वनाम धन्य कवियों एवं साहित्यकारों का हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। किन्तु ऐसे भी कवि और साहित्यकार हैं जो मूल्यांकन की दृष्टि से आज भी उपेक्षित हैं।
हिन्दी की प्रायः सभी विधाओं में छत्तीसगढ़ के साहित्याकरों का योगदान रहा है। लेखन के प्रति मेरी अभिरुचि विद्यार्थी जीवन से ही रही है। प्रदेश स्तरीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मेरी छुटपुट रचनाएँ खूब छपती रही हैं, जिनमें स्वास्थ्य संबंधी, आलेख, सामाजिक लेख, भारतीय परंपराओं की वैज्ञानिकता को दर्शाते आलेख, नीति कथाएँ, सूक्तियाँ, कहावतों पर आधारित लेख, समसामयिक विषयों पर आलेख नारी के संघर्ष को उद्धृत करती कहानियाँ आदि विशेष हैं। इसी क्रम में जीवन के पचासवें वर्ष (स्वर्ण जयंती) ने मुझे पी—एच-डी. की उपाधि का उपहार दिया। अब ये छुटपुट लेख, कथाएँ, छोटी-मोटी कृतियों का रूप धारण करने पर अड़े हुए हैं। ‘छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएं’ इसी यात्रा का पड़ाव हैं। प्रस्तुत कृति में मैंने छत्तीसढ़ के अनेक लोकाचारों को लघुकहानियों का रूप प्रदान किया है। परंपराओं को बदलते स्वरूप के अनुरूप बनाकर आधुनिकता से जोड़कर कुछ कहानियों का सृजन किया है। कहानियों में जिज्ञासा और रोचकता का विशेष महत्त्व होता है मैंने पूरा प्रयास किया है कि उत्सुकता बनी रहे साथ ही क्षेत्रीयता को भी स्थान दिया है। कुछ कहानियों में यथार्थ को ही विशेष महत्त्व दिया है। यथार्थ के साथ आदर्श की भी गूंज हर कथा में सुनाई पड़ती है। कुछ घटनाएँ मेरे सामने और मेरे आसपास इस तरह घटी कि मैं उनकी मूक साक्षी रही हूँ। कुछ कहानियों में परंपरा के साथ आधुनिकता का मणिकांचन संयोग है। कुछ कहानियाँ परंपरा से हटकर, कटकर आधुनिकता का आंचल थामे हैं।
एक सुप्रसिद्ध कहावत है कि ‘कोस कोस में बदले पानी, चार कोस में बानी’ यदि इसमें मैं यह जोड़ दूँ कि घाट-घाट में बदले विचार बाट-बाट में व्यौहार तो अतिश्योक्ति न होगी। आचार-विचार और व्यवहार में भी थोड़ी-थोड़ी दूसरी में अंतर आ जाता है। मेरी कहानियाँ मुख्यतः लोकाचार पर आधारित हैं। इन कहानियों का यथार्थ मूल्यांकन पाठकगण ही कर सकेंगे। इन कहानियों के लेखन का मुख्य उद्देश्य नवोदित छत्तीसगढ़ राज्य की लोक-परंपराओं का अन्य प्रांतों के निवासियों को जानकारी देना, साथ ही सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्वशिक्षा अभियान एवं नवसाक्षरों के लिए रोचक साहित्य निर्माण में सहयोग देना है।
इन कहानियों में परंपराओं के साथ आधुनिकता तथा यथार्थ के साथ कल्पना को समन्वित कर इन्हें रोचक एवं समाजोपयोगी बनाने का पूरा प्रयास मैंने किया है। वस्तुतः समाज के अंग विभिन्न जाति-समुदायों के घर-घाट, हाट-बाट घटित घटनाएँ ही कथा का रूप ले बैठी हैं। प्रस्तुत कृति के प्रणयन में मैंने कोरबा एवं विलासपुर के विभिन्न पुस्तकालयों में उपलब्ध लोकसाहित्य संबंधी विभिन्न कृतियों का अध्ययन, मनन किया। अनेक कथारात्रों के जीवन की प्रत्यक्षदर्शी रही हूँ तथा अनेक लोकाचारों की जानकारी प्राप्त करने छत्तीसगढ़ के अनेक गाँवों का भ्रमण किया। इस कार्य में सर्वाधिक सहायता मुझे मेरे पति श्री एस.डी. नागेश्वर से मिली जो भ्रमणकाल में मेरे साथ रह कर मेरा उत्साहवर्धन करते रहे साथ ही विशिष्ट संदर्भ ग्रंथों को उपलब्ध कराने में सहायक रहे।
मैं उन्हें हृदय से धन्यवाद देती हूँ। साथ ही अपने दोनों सुपुत्रों डॉ. प्रशांत नागेश्वर एवं चिं. निसांत नागेश्वर को भी साधुवाद देती हूँ कि उनके बढ़ावा देने से मेरी चिरसंचित पुस्तक प्रकाशन की चाह को मंजिल मिली।
मेरे शोध प्रबंध को यथार्थ देने में सी.एम.डी. महाविद्यालय, बिलासपुर के पूर्व प्राचार्य एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी तथा रविशंकर विश्वविद्यालय बिलासपुर छ-ग. के हिन्दी अध्ययन मंडल के पूर्व अध्ययक्ष डॉ. जगमोहन मित्र ने मेरी अपूर्व सहायता की है। इस कृति में भी वे मेरे मार्गदर्शक रहे हैं। मात्र आभार मानकर मुक्त होना औपचारिकता का परिपालन ही होगा। मैं आजीवन उनकी ऋणी रहूँगी। मैं आभारी हूँ चिरंजीव आशीष श्रीवास की (चाम्पा पिसौद) जिन्होंने मेरी कहानियों का चित्ररूप में जीवनंत करके अपना अमूल्य सहयोग दिया है।
डॉ. चन्द्रावती नागेश्वर
अभिमत
डॉ श्रीमती चन्द्रावती नागेश्वर ‘‘छत्तीसगढ़ के
लोकाचार की
कथाएँ’’ आध्यान्त पढ़ गया हूँ। लोकाचार आधारित ये
कथाएँ अपने
विषय की नवीनता को स्वयं ही व्यक्त कर रही हैं। लोक साहित्य पर बहुत कुछ
लिखा जा चुका है। लोक वस्तुतः मानव समाज का वह वर्ग है, जो आभिजात्य
संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य होता है।
वह एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है। ऐसे लोक की अभिव्यक्ति में जो
तत्त्व प्राप्त होते हैं, वे ही लोकतत्त्व कहलाते हैं। ऐसे लोक का साहित्य
लोक साहित्य कहा जाता है। लोक साहित्य के अंतर्गत वह समस्त बोली या भाषागत
अभिव्यक्ति आती है, जिसमें आदिम मानव के अवशेष उपलब्ध हों, परंपरागत मौलिक
क्रम से उपलब्ध लोकमानस की प्रवृत्ति में समाई भाषागत अभिव्यक्ति हो तथा
लोकमानस के सामान्य तत्त्वों से युक्त कृतित्व हो।
लोक साहित्य में कथा साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है और कथा साहित्य में लोक कहानी विशेष प्रचलित विधा है। लोक कहानी अभिप्रायगर्भित एवं मनोरंजन गर्भित होती है। अभिप्रायगर्भित कहानियों में अनुष्ठान और उपदेशात्मक कहानियों का विशेष महत्त्व है। उपदेशात्मक कहानियों का विशेष महत्त्व है। उपदेशात्मक कहानियों में धर्मगाथाएँ, बुझौवल और पंचतंत्रीय कहानियाँ आती हैं। मनोरंजन गर्भित कहानियों में हास्य, चुटकुले, परीकथाएँ, शौर्यकथाएँ, जातिवर्ण की कथाएँ तथा ठगों की कहानियों का विशेष महत्त्व है।
डॉ. श्रीमती चन्द्रवती नागेश्वर की ‘छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएँ’ इन सहबी कहानियों से अलग एक नए द्वार का उद्घाटन करती हैं। लोक की बात अथवा लोकमत का विशेष महत्त्व होता है। चित्रकूट में रामभरतमिलाप के अवसर पर गुरु वशिष्ट ने रामचन्द्र से कहा था—
लोक साहित्य में कथा साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है और कथा साहित्य में लोक कहानी विशेष प्रचलित विधा है। लोक कहानी अभिप्रायगर्भित एवं मनोरंजन गर्भित होती है। अभिप्रायगर्भित कहानियों में अनुष्ठान और उपदेशात्मक कहानियों का विशेष महत्त्व है। उपदेशात्मक कहानियों का विशेष महत्त्व है। उपदेशात्मक कहानियों में धर्मगाथाएँ, बुझौवल और पंचतंत्रीय कहानियाँ आती हैं। मनोरंजन गर्भित कहानियों में हास्य, चुटकुले, परीकथाएँ, शौर्यकथाएँ, जातिवर्ण की कथाएँ तथा ठगों की कहानियों का विशेष महत्त्व है।
डॉ. श्रीमती चन्द्रवती नागेश्वर की ‘छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएँ’ इन सहबी कहानियों से अलग एक नए द्वार का उद्घाटन करती हैं। लोक की बात अथवा लोकमत का विशेष महत्त्व होता है। चित्रकूट में रामभरतमिलाप के अवसर पर गुरु वशिष्ट ने रामचन्द्र से कहा था—
भरत विनय सादर सुनिय, करिय विचारु बहार।
करव साधुमत लोकमत, नृपनय निगम निचोरि।।
करव साधुमत लोकमत, नृपनय निगम निचोरि।।
(तुलसीकृत रामचरितमानस अयोध्या कांड, पृ. 259)
यहाँ भी लोकमत को विशेष महत्त्व दिया गया है। वस्तुतः लोकजन का विशेष
महत्त्व होता है। तुलसी की कृति रामचरितमानस सामान्य लोकजन के मनमस्तिष्क
में समाकर ही अमरत्व प्राप्त कर सकी है। चर्चित कृति में भी लोकाचार से
संबंध रखने वाली महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं, जिन्हें हम सामान्यतः घटित
होते देखते हैं। कुछ समय तक अवश्य ही उनका प्रभाव हमारे मष्तिष्क पर पड़ता
है, हमारी चेतना झंकृत होती है और धीरे-धीरे उन घटनाओं को हम विस्मतृ कर
जाते हैं।
प्रस्तुत कृति में लोकाचार संबंधी 23 कहानियाँ सम्मिलित हैं। ये कहानियाँ सचमुच ही घर-घाट की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ गांव-गली की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ जन-जन की कहानियाँ है, ये कहानियाँ पर्व-त्यौहार की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ रीति-रिवाज की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ जन-जन की कहानियाँ है, ये कहानियाँ पर्व-त्यौहार की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ रीति-रिवाज की कहानियाँ हैं, धर्म-अधर्म की कहानियाँ हैं। भांचादान कथा में छत्तीसगढ़ से उस लोकाचार की चर्चा है, जहाँ अनेक जातियों में अपने भांजे को बेटी ब्याहना पुण्य कर्म माना जाता है। तीजाही लेवाल कहानी बेटियों को तीजपर्व के अवसर पर सम्मान सहित मायके लेकर आने की प्रथा को दर्शाती है। शादी के बाद भले ही बेटी पराई हो जाती है फिर भी उसके मन में मायके की ललक बनी रहती है। छत्तीसगढ़ में विवाहिता बेटियों को जीवन भर तीजा पर्व के अवसर मायके लिवा कर ले जाया जाता है, उसे वस्त्र, अन्न, व्यंजन आदि देकर सम्मान सहित ससुराल विदा किया जाता है। मायके पक्ष एवं ससुराल पक्ष के बीच संबंधों के सेतु कार्य करती है यह परंपरा।
गोदना गोदवा ले कथा छत्तीसगढ़ में बहुप्रचलित लोकाचार है। ऐसी मान्यता है कि गोदना गुदवाने से नर-नारी में पृथकता का बोध होता है। पुनर्जन्म की मान्यता को पोषित करता है गोदना का निशान। रंगबती ग्रामीण अंचलों में सत्यनारायण कथा के प्रति आस्था और विश्वास को दर्शाती है। भोजली कृषि प्रधान मानसिकता के साथ भावनात्मक संबंधों पर आधारित लोकाचार की कथा है। ‘‘लमसेना’’ (घरजवाई) छत्तीसगढ़ के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में निवासतरत आदिवासी जातियों में प्रचलित लमसेना या घरजमाई गाथा पर आधारित कथा है जो नारी प्रधान समाज की महत्ता दर्शाता है।
‘‘एक थी अहिल्या’’ में चूड़ी हाई प्रथा या स्त्रियों के पुनर्विवाह प्रथा की मान्यता को महत्त्व देता है। ‘‘धर्म-अधर्म’’ में धर्म परिवर्तन हेतु उन्मुख आदिवासी जातियों के भूख, अभाव और पीड़ा से मुक्त दिलाने वाले के प्रभाव और मानवीयता, सेवाभावना की महत्ता को दर्शाया गया है। कष्टों से मुक्ति दिलाने वाला ही ईश्वर होता है। ‘‘शहरी बहू’’ में मर्यादा पालन करने वाली नारी को ही सभ्यता की कसौटी पर सही बताया गया है। शिक्षा किताबी नहीं वरन व्यावहारिक एवं जीवनोपयोगी हो।
‘‘गोमती की आंखें’’ नेत्रदान का संदेश देती हैं, हेमा का बच्चा अंधविश्वासों की बखिया उधेड़ता हुआ स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता का मंत्र देता है। राष्ट्रपति पुरस्कार कहानी नौकरी के लिए शहरों में भटकते युवाओं को जमीन से जुड़ने का मार्ग दिखाता है। ‘‘आम्रपाली’’ पर्यावरण जागृति का संदेश देती परित्यक नवजात की कथा है। ‘‘अनाम रिश्ता’’ अनपढ़ नारी की उपेक्षा एवं संघर्ष की कथा है ‘‘बिहाट’’ पुनर्विवाह से उत्पन्न समस्या एवं समाधान की कथा है। ‘‘पंचायत का अनोखा फैसला’’ बदलते समय में अंतर्जातीय विवाह के महत्त्व को प्रतिपादित करती है। ‘‘गौरा पूजा’’ कहानी में दीपावली के बाद गौरा विवाह की धूम और नारी शक्ति के प्रति आभार दर्शित है, ‘‘छेर छेरा पर्व’’ अन्नदान के महत्त्व को रेखांकित करता है, ‘‘गुरांवट’’ शादी में बेटियों की अदला-बदली को बताया गया है।
प्रस्तुत कृति में लोकाचार संबंधी 23 कहानियाँ सम्मिलित हैं। ये कहानियाँ सचमुच ही घर-घाट की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ गांव-गली की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ जन-जन की कहानियाँ है, ये कहानियाँ पर्व-त्यौहार की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ रीति-रिवाज की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ जन-जन की कहानियाँ है, ये कहानियाँ पर्व-त्यौहार की कहानियाँ हैं, ये कहानियाँ रीति-रिवाज की कहानियाँ हैं, धर्म-अधर्म की कहानियाँ हैं। भांचादान कथा में छत्तीसगढ़ से उस लोकाचार की चर्चा है, जहाँ अनेक जातियों में अपने भांजे को बेटी ब्याहना पुण्य कर्म माना जाता है। तीजाही लेवाल कहानी बेटियों को तीजपर्व के अवसर पर सम्मान सहित मायके लेकर आने की प्रथा को दर्शाती है। शादी के बाद भले ही बेटी पराई हो जाती है फिर भी उसके मन में मायके की ललक बनी रहती है। छत्तीसगढ़ में विवाहिता बेटियों को जीवन भर तीजा पर्व के अवसर मायके लिवा कर ले जाया जाता है, उसे वस्त्र, अन्न, व्यंजन आदि देकर सम्मान सहित ससुराल विदा किया जाता है। मायके पक्ष एवं ससुराल पक्ष के बीच संबंधों के सेतु कार्य करती है यह परंपरा।
गोदना गोदवा ले कथा छत्तीसगढ़ में बहुप्रचलित लोकाचार है। ऐसी मान्यता है कि गोदना गुदवाने से नर-नारी में पृथकता का बोध होता है। पुनर्जन्म की मान्यता को पोषित करता है गोदना का निशान। रंगबती ग्रामीण अंचलों में सत्यनारायण कथा के प्रति आस्था और विश्वास को दर्शाती है। भोजली कृषि प्रधान मानसिकता के साथ भावनात्मक संबंधों पर आधारित लोकाचार की कथा है। ‘‘लमसेना’’ (घरजवाई) छत्तीसगढ़ के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में निवासतरत आदिवासी जातियों में प्रचलित लमसेना या घरजमाई गाथा पर आधारित कथा है जो नारी प्रधान समाज की महत्ता दर्शाता है।
‘‘एक थी अहिल्या’’ में चूड़ी हाई प्रथा या स्त्रियों के पुनर्विवाह प्रथा की मान्यता को महत्त्व देता है। ‘‘धर्म-अधर्म’’ में धर्म परिवर्तन हेतु उन्मुख आदिवासी जातियों के भूख, अभाव और पीड़ा से मुक्त दिलाने वाले के प्रभाव और मानवीयता, सेवाभावना की महत्ता को दर्शाया गया है। कष्टों से मुक्ति दिलाने वाला ही ईश्वर होता है। ‘‘शहरी बहू’’ में मर्यादा पालन करने वाली नारी को ही सभ्यता की कसौटी पर सही बताया गया है। शिक्षा किताबी नहीं वरन व्यावहारिक एवं जीवनोपयोगी हो।
‘‘गोमती की आंखें’’ नेत्रदान का संदेश देती हैं, हेमा का बच्चा अंधविश्वासों की बखिया उधेड़ता हुआ स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता का मंत्र देता है। राष्ट्रपति पुरस्कार कहानी नौकरी के लिए शहरों में भटकते युवाओं को जमीन से जुड़ने का मार्ग दिखाता है। ‘‘आम्रपाली’’ पर्यावरण जागृति का संदेश देती परित्यक नवजात की कथा है। ‘‘अनाम रिश्ता’’ अनपढ़ नारी की उपेक्षा एवं संघर्ष की कथा है ‘‘बिहाट’’ पुनर्विवाह से उत्पन्न समस्या एवं समाधान की कथा है। ‘‘पंचायत का अनोखा फैसला’’ बदलते समय में अंतर्जातीय विवाह के महत्त्व को प्रतिपादित करती है। ‘‘गौरा पूजा’’ कहानी में दीपावली के बाद गौरा विवाह की धूम और नारी शक्ति के प्रति आभार दर्शित है, ‘‘छेर छेरा पर्व’’ अन्नदान के महत्त्व को रेखांकित करता है, ‘‘गुरांवट’’ शादी में बेटियों की अदला-बदली को बताया गया है।
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